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Wednesday, 19 December 2012

अभेदानंद

Non-Duality





 
The belll tolls at four in the morning.
I stand by the window
barefoot on the cool floor.
The garden is still dark.
I wait for the mountains and rivers to reclaim their
shapes.
There is no light in the deepest hours of the night.
Yet , I know you are there
in the depth of the night,
the immeasurable world of the mind.
You , the known , have been there
ever since the knower has been.
The dawn will come soon,
and you will see
that you and the rosy horizon
are within my two eyes.
It is for me that the horizon is rosy
and the sky blue.
Looking at your image in the clear stream,
you answer the question by your presence.
life is humming the song of the non-dual marvel.
I suddenly find myself smiling
in the presence of this immaculate night.
I know because I am here that you are there,
and your being has returned to show itself
in the wonder of tonight's smile.
In the quiet stream,
I swim gently.
The murmur of the water lulls my heart.
A wave serves as a pillow
I look up and see
a white cloud against the blue sky,
the sound of Autumn leaves,
the fragrance of hay-
each one a sign of eternity.
A bright star helps me find my way back to myself.
I know because you are there that I am here.
The stretching arm of cognition
in a lightning flash,
joining together a million eons of distance,
joining together birth and death,
joining together the known and the knower.
In the depth of the night,
as in the immeasurable realm of consciousness,
the garden of life and I
remain each other's objects.
The flower of being is singing the song of
emptiness.
The night is still immaculate,
but sounds and images from you
have returned and fill the pure night.
I feel their presence.
By the window , with my bare feet on the cool floor,
I know I am here
for you to be.
-Thich Nhat Hahn
घंटियाँ बजती सुबह तड़के बजे चार .
खड़ा मैं खिड़की किनारे
पाँव नंगे ....फर्श पे ठण्डे .
है छिपा तम में उपवन अभी ....
प्रतीक्षारत कि गिरि श्रृंग ,सरिताएं प्रकट हों
रूप धारण कर  .
दिखती न ज्योति रात्रि के गहन तम में .
जानता मैं तुम यहीं हो
रात की गहराइयों में ,
असीमित संसार मन का .
ज्ञान तुम , सदा रहे हो
ज्ञाता जन्मा था जिस पल .
जल्द ही  चमकेगा सूरज ,
और देखोगे तुम तब
तुम और अरुणिम क्षितिज दोनों मेरे नेत्र में हैं .
है मेरी खातिर गुलाबी क्षितिज
और अम्बर नील .
देखता तेरी छवि निर्मल नदी में ,
देते उत्तर प्रश्न के स्व स्थिति से .
ज़िंदगी झंकृत स्वर से एकात्मता के .
पाता हूँ खुद को मुखरित अचानक
संग में इस निर्मल ज्योति के .
जानता हूँ क्यूँ कि मैं हूँ यहाँ की तुम यहीं हो ,
और तुम लौट आये हो खुद को दिखाने
रात की अद्भुत इस मुस्कान में .

शांत बहती नदी में ,
तैरता मैं मग्न .
मर्मराहट पानी की देती ज्यूँ लोरी ह्रदय को .
लहर जैसे हो तकिया मेरा
देखता ऊपर तो पाता
एक टुकड़ा गोरा बादल नीले नभ में ,
पत्तियों के स्वर शरद में ,
खुशबू धान की फ़ैली
सब सुझाते अमरता ही ..
एक झिलमिल तारा दिलाता याद अपनीमुझे .
जानता हूँ क्यूँ कि तुम हो और मैं भी यहाँ .
बाहें जो फैलायीं परिचय की
एक ज्योतिर्मय घड़ी में ,
जोड़ के दूरी करोड़ो युगों की ,
एक तुमने कर दिया जीवन -मरण ,
एक कर के ज्ञेय और ज्ञाता .
रात की गहराइयों में ,
जैसे चेतनता के असीम जगत में ,
ज़िंदगी का बाग़ और मैं
विषय/उद्देश्य हैं एक दूसरे के .
फूल अस्तित्व का गाता है गीत
रिक्तता का .
रात अब भी शांत निर्मल ,
किन्तु स्वर,छवियाँ तुम्हारी
लौटते, भर देते शुभ्रा रात को .
करता अनुभव, संग हैं वे .
खड़ा खिड़की के किनारे पाँव नँगे फर्श पे ठन्डे ,
जानता हूँ मैं यहाँ हूँ
तेरी खातिर .....

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