Last night
the rain
spoke to me
slowly, saying,
what joy
to come falling
out of the brisk cloud,
to be happy again
in a new way
on the earth!
That’s what it said
as it dropped,
smelling of iron,
and vanished
like a dream of the ocean
into the branches
and the grass below.
Then it was over.
The sky cleared.
I was standing
under a tree.
The tree was a tree
with happy leaves,
and I was myself,
and there were stars in the sky
that were also themselves
at the moment
at which moment
my right hand
was holding my left hand
which was holding the tree
which was filled with stars
and the soft rain –
imagine! imagine!
the long and wondrous journeys
still to be ours.
रात बीती,
बरखा रानी
बोली मुझ से
मंद स्वर में होल से
क्या मज़ा है
गिर के आना
बादलों के जगत से
होना फिर से खुश
नए पन से
इस धरा पर !
कहा यह उसने
जब बरसी थी वह
गंध ले संग लोह की ,
हो गयी गायब
सपने की तरह सिन्धु के
टहनियों में
और नीचे घास में
हुआ पूरा सब कुछ
आस्मां था साफ़
मैं खडी थी
वृक्ष के नीचे .
वृक्ष तो वृक्ष ही था
संग खुश थी पत्तियाँ ,
और मैं थी
और तारों भरा नभ
वे भी थे
और उस पल
तभी उस पल
हाथ मेरा दाहिना
थामे था बाएं को
थामे था वृक्ष को जो
घिरा था तारा गणों से
और धीमी सी बारिश -
कल्पना ! क्या कल्पना !
गीत और यात्रा अद्भुत
अभी भी अपनी थी होनी
~ Mary Oliver
the rain
spoke to me
slowly, saying,
what joy
to come falling
out of the brisk cloud,
to be happy again
in a new way
on the earth!
That’s what it said
as it dropped,
smelling of iron,
and vanished
like a dream of the ocean
into the branches
and the grass below.
Then it was over.
The sky cleared.
I was standing
under a tree.
The tree was a tree
with happy leaves,
and I was myself,
and there were stars in the sky
that were also themselves
at the moment
at which moment
my right hand
was holding my left hand
which was holding the tree
which was filled with stars
and the soft rain –
imagine! imagine!
the long and wondrous journeys
still to be ours.
रात बीती,
बरखा रानी
बोली मुझ से
मंद स्वर में होल से
क्या मज़ा है
गिर के आना
बादलों के जगत से
होना फिर से खुश
नए पन से
इस धरा पर !
कहा यह उसने
जब बरसी थी वह
गंध ले संग लोह की ,
हो गयी गायब
सपने की तरह सिन्धु के
टहनियों में
और नीचे घास में
हुआ पूरा सब कुछ
आस्मां था साफ़
मैं खडी थी
वृक्ष के नीचे .
वृक्ष तो वृक्ष ही था
संग खुश थी पत्तियाँ ,
और मैं थी
और तारों भरा नभ
वे भी थे
और उस पल
तभी उस पल
हाथ मेरा दाहिना
थामे था बाएं को
थामे था वृक्ष को जो
घिरा था तारा गणों से
और धीमी सी बारिश -
कल्पना ! क्या कल्पना !
गीत और यात्रा अद्भुत
अभी भी अपनी थी होनी
~ Mary Oliver
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