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Friday, 1 February 2013

न बनूँगा ठंडा लोहा


Year after year burns my heart,glowing hotter and hotter
plunged in society's life,immersed in it as in cold water.
like red-hot steel in a furnace,  aboiling life set it.
life you were cruel to me,so cruel.I can never forget it!
In indignation I seethe, full of pain and of sorrow,
yet will not turn to cold steel neither today nor tomorrow.

Alexei Tolstoy

वर्ष प्रति वर्ष जलता हृदय ,चमकता आग से दग्ध झुलस, फंस सामाजिक बंधनों में , जैसे डूबा न्डे जल में,
भट्टी में जैसे भभकता लाल लोहा, ज़िंदगी ने उबाला ज़िंदगी निर्मम तू ,क्रूर बेहद ,भूल सकता न कभी! देखता, भर रोष ,कष्टों ,दुखों से इसको भरा , न बनूँगा ठंडा लोहा पर मैं ,आज न ,न ही कल !
Alexei Tolstoy


2 comments:

  1. लोहा-और सोना भट्टी में तप कर ही निखरता है!

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  2. जीवन का आर्ष सिद्धांत यही हैं .. संघर्ष में संग हर्ष निहित

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